Saturday, 1 October 2016

कारपोरेट प्रायोजित युद्धोन्माद में निष्णात हम भारतीय नागरिक परमाणु विध्वंस का रास्ता चुन रहे हैं और यह हमारे इतिहास और भूगोल का सबसे बड़ा संकट है। नवजागरण की जमीन पश्चिम की रेनेशां कतई नहीं है! यह सिंधु घाटी और बौद्धमय भारत,चार्वाक दर्शन,संत फकीर पीर बाउल,किसान आदिवासी आंदोलनों की निरंतरता है! पलाश विश्वास

कारपोरेट प्रायोजित युद्धोन्माद में निष्णात हम भारतीय नागरिक परमाणु विध्वंस का रास्ता चुन रहे हैं और यह हमारे इतिहास और भूगोल का सबसे बड़ा संकट है।
नवजागरण की जमीन पश्चिम की रेनेशां कतई नहीं है!
यह सिंधु घाटी और बौद्धमय भारत,चार्वाक दर्शन,संत फकीर पीर बाउल,किसान आदिवासी आंदोलनों की निरंतरता है!
पलाश विश्वास
ईस्ट इंडिया कंपनी के राजकाज के खिलाफ पलाशी की लड़ाई में बंगाल के नवाब सिराजदौल्ला की हार के बाद लार्ड क्लाइव के भारत भाग्यविधाता बन जाने के बारे में बहुत ज्यादा चर्चा होती रही है।लेकिन 1757 से बंगाल बिहार और मध्य भारत के जंगल महल में चुआड़ विद्रोह से पहले शुरु आदिवासी किसान विद्रोह के अनंत सिलसिले के बारे में हम बहुत कम जानते हैं।हम चुआड़ विद्रोह के बारे में भी खास कुछ नहीं जानते और कंपनी राज के खिलाफ साधु, संत, पीर, बाउल फकीरों की अगवाई में बिहार और नेपाल से लेकर समूचे बंगाल में हुए हिंदू मुसलमान बौद्ध आदिवासी किसानों के आंदोलन को हम ऋषि बंकिम चंद्र के आनंदमठ और वंदे मातरम के मार्फत सन्यासी विद्रोह कहकर भारतीय राष्ट्रवाद और राष्ट्र को इसकी विविधता और बहुलता को सिरे से खारिज करते हुए हिंदू राष्ट्रवाद और हिंदू राष्ट्र का निर्माण करते हुए बहुसंख्य जनता के हक हकूक खत्म करने पर आमादा हैं।
बौद्धमय भारत के धम्म के बदले हम वैदिकी कबाइली युद्धोन्माद का अपना राष्ट्रवाद मान रहे हैं।जिसका नतीजा परमाणु युद्ध, जल युद्ध जो भी हो,सीमा के आर पार हड़प्पा और मोहनजोदोड़ो के नगर अवशेषों  की जगह अंसख्य हिरोशिमा और नागासाकी का निर्माण होगा और करोड़ों लोग इस परमाणु युद्ध में शहीद होंगे तो जलयुद्ध के नतीजतन इस महादेश में फिर बंगाल और चीन की भुखमरी का आलम होगा।भारत विभाजन के आधे अधूरे जनसंख्या स्थानांतरण की हिंसा की निरतंरता से बड़ा संकट हम मुक्त बाजार के विदेशी हित में रचने लगे हैं। सीमाओं के आर पार ज्यादातर आबादी शरणार्थी होगी और हमारी अगली तमाम पीढिंया न सिर्फ विकलांग होंगी,बल्कि उन्हें एक बूंद दूध या एक दाना अनाज का नसीब नहीं होगा।अभी से बढ़ गयी बेतहाशा महंगाई और लाल निशान पर घूम फिर रहे अर्थव्यवस्था के तमाम संकेतों को नजर अंदाज करके कारपोरेट प्रायोजित युद्धोन्माद में निष्णात हम भारतीय नागरिक आत्म ध्वंस परमाणु विध्वंस का रास्ता चुन रहे हैं और यह हमारे इतिहास और भूगोल का सबसे बड़ा संकट है।
गौरतलब है कि किसान आदिवासी आंदोलनों के हिंदुत्वकरण की तरह जैसे उन्हें हम ब्राह्मणवादी समाजशास्त्रियों के आयातित विमर्श के तहत सबअल्टर्न कहकर उसे मुख्यधारा मानेन से इंकार करते हुए सत्तावर्ग का एकाधिकार हर क्षेत्र में स्थापित करने की साजिश में जाने अनजाने शामिल है,उसीतरह  बंगाल के नवजागरण को हम यूरोप के नवजागरण का सबअल्टर्न विमर्श में तबादील करने से नहीं चुकते और नवजागरण के पीछे कवि जयदेव के बाउल दर्शन,चैतन्य महाप्रभु के वैष्णव आंदोलन के साथ साथ संत कबीर दास के साथ शुरु सामंतवाद और दिव्यता के विरुद्ध मनुष्यता की धर्मनरपेक्ष चेतना और इन सबमें तथागत गौतम बु्द्ध की सामाजिक क्रांति की निरंतरता के इतिहास बोध से हम एकदम अलग हटकर इस वैदिकी और ब्राह्मणी कर्मकांड के खिलाफ क्रांतिकारी आंदोलन को पश्चिम की जुगाली साबित करने से चुकते नहीं है।
इसी तरह मतुआ आंदोलन की पृष्ठभूमि 1857 की क्रांति से पहले कंपनी राज के खिलाफ किसानों के ऐतिहासिक विद्रोह नील विद्रोह से तैयार हुई और इस आंदोलन के नेता हरिचांद ठाकुर नें बंगाल बिहार में हुए मुंडा विद्रोह के महानायक बिरसा मुंडा की तर्ज पर सत्ता वर्ग के धर्म कर्म का जो मतुआ विकल्प प्रस्तुत किया,उसके बारे में हम अभी संवाद शुरु ही नहीं कर सके हैं।यह तथागत गौतम बुद्ध की सामाजिक क्रांति को बंगाल में तेरहवीं सदी से आयातित ब्राह्मणधर्म के खिलाफ फिर बौद्धमय बगाल बनाने के उपक्रम बतौर हमने अभीतक देखा नहीं  है और विद्वतजन इस भी सबअल्टर्न घोषित कर चुके हैं और मुख्यधारा से बंगाल के जाति धर्म निर्विशेष बहुसंख्य आम जनता, किसानों और आदिवासियों को अस्पृश्यता की हद तक काट दिया है और इसी साजिस के तहत बंगाली दलित शरणार्थियों को बंगाल से खदेड़कर उन्हें विदेशी तक करार देनें में बंगाल की राजनीति में सर्वदलीय सहमति है।
बंगाल में मतुआ आंदोलन भारत और बंगाल में ब्राह्मण धर्म और वैदिकी कर्मकांड के विरुद्ध समता और न्याय की तथागत गौतम बुद्ध की सामाजिक क्रांति की निरंतरता रही हैऔर जैसे गौतम बुद्ध को आत्मसात करने के लिए विष्णु का आविस्कार हुआ वैसे ही हरिचांद ठाकुर को भी विष्ण का अवतार मैथिली ब्राह्मण बाकी बहुसंख्य जनता की अस्पृश्यता बहाल रखने की गहरी साजिश है जिसके तहत मतुआ आंदोलन अब महज सत्ता वर्ग का खिलौना वोट बंके में तब्दील है।यह महसूस न कर पाने की वजह से हम मतुआ आंदोलन का ब्राह्मणीकरण रोक नहीं सके हैं और इसी तरह दक्षिण भारत में सामाजिक क्रांति की पहल जो लिंगायत आंदोलन ने की,ब्राह्मणधर्म विरोधी सामंतवाद विरोधी अस्पृश्यता विरोधी उस आंदोलन का हिंदुत्वकरण भी हम रोक नहीं सके हैं।
इसीलिए बंगाल में मतुआ आंदोलन के हाशिये पर चले जाने के बाद कर्नाटक में भी जीवन के हर क्षेत्र में लिंगायत अनुयायियों का वर्चस्व होने के बावजूद वहां केसरिया एजंडा गुजरात की तरह धूम धड़के से लागू हो रहा है।वहीं,महात्मा ज्योतिबा फूले और अंबेडकर की कर्मभूमि में शिवशक्ति और भीमशक्ति का महागठबंधन वहां के बहुजनों का केसरियाकरण करके उनका काम तमाम करने लगा है और बहुजनों के तमाम राम अब हनुमान है तो अश्वमेधी नरसंहार अभियान में बहुजन उनकी वानरसेना है।
दक्षिण भारत में पेरियार और नारायण गुरु ,अय्यंकाली सिनेमाई ग्लेमर में निष्णात है और उसकी कोई गूंज न वहां है और न बाकी भारत में।पंजाब में सिखों के सामाजिक क्रांतिकारी आंदोलन भी हिंदुत्व की पिछलग्गू राजनीति के शिकंजे में है और अस्सी के दशक में हिंदुत्व के झंडेवरदारों ने उनका जो कत्लेआम किया,उसके मुकाबले गुजरात नरसंहार की भी तुलना नहीं हो सकती।लेकिन सिखों को अपने जख्म चाटते रहने की नियति से निकलने के लिए गुरु ग्रंथ साहिब में बतायी दिशा नजर नहीं आ रही है।तमिल द्रविड़ विरासत से अलगाव,सिंधु सभ्यता के विभाजन के ये चमत्कार हैं।
सिंधु घाटी के नगरों में पांच हजार साल पहले बंगाल बिहार की विवाहित स्त्रियों की तरह स्त्रियां शंख के गहने का इस्तेमाल करती थींं,हड़प्पा और मोहंजोदोड़़ो के पुरात्तव अवशेष में वे गहने भी शामिल हैं।लेकिन गौतम बुद्ध के बाद अवैदिकी विष्णु को वैदिकी कर्मकांड का अधिष्ठाता बनाकर तथागत गौतम बुद्ध को उनका अवतार बनाने का जैसे उपक्रम हुआ,वैसे ही भारत में बौद्धकाल और उससे पहले मिली मूर्तियों को,यहां तक की गौतम बुद्ध की मूर्तियों को भी विष्णु की मूर्ति बताने में पुरतत्व और इतिहास के विशेषज्ञों को शर्म नहीं आती।
सिंधु सभ्यता का अवसान भारत में वैदिकी युग का आरंभ है तो बुद्धमय भारत में वैदिकी काल का अवसान है।फिर बौद्धमय भारत का अवसान आजादी के सत्तर साल बाद भी खंडित अखंड भारत में मनुस्मृति के सामांती बर्बर असभ्य फासिस्ट रंगभेदी मनुष्यता विरोधी नरसंहारी राजनीति राजकाज है।मुक्तबाजार है।युद्धोन्माद यही है।
इस बीच आर्यावर्त की राजनीति पूरे भारत के भूगोल पर कब्जा करने के लिए फासिस्ट सत्तावर्ग यहूदियों की तरह अनार्य जनसमूहों आज के बंगाली, पंजाबी, सिंधी, कश्मीरी, तिब्बती, भूटिया,आदिवासी, तमिल शरणार्थियों की तरह भारतभर में बहुजनों का सफाया आखेट अभियान जारी है।क्योकि वे अपनी पितृभूमि से उखाड़ दिये गये बेनागरिक खानाबदोश जमात में तब्दील हैं। जिनके कोई नागरिक और मानवाधिकार नहीं हैं तो जल जंगल जमीन आजीविकता के हरक हकूक भी नहीं हैं।मातृभाषा के अधिकार से भी वे वंचित हैं।भारत विभाजन का असल एजंडा इसी नरसंहार को अंजाम देने का रहा है,जिससे आजादी या जम्हूरियता का कोई नाता नहीं है। सत्ता वर्ग की सारी कोशिशें उन्हें एकसाथ होकर वर्गीय ध्रूवीकरण के रास्ते मोर्चबंद होने से रोकने की है और इसीलिये यह मिथ्या राष्ट्रवाद है,अखंड धर्मोन्मादी युद्ध परिस्थितियां हैं।
भारत से बाहर रेशम पथ के स्वर्णकाल से भी पहले सिंधु सभय्ता के समय से करीब पांच हजार साल पहले मध्यएशिया के शक आर्य खानाबदोश साम्राज्यों के आर पार हमारी संस्कृति और रक्तधाराएं डेन मार्क,फिनलैंड,स्वीडन से लेकर सोवियात संघ और पूर्वी एशिया के स्लाव जनसमूहों के साथ घुल मिल गयी हैं और वहीं प्रक्रिया करीब पांच हजार साल तक भारत में जारी रही हैं।जो विविधता और बहुलता का आधार है,जिससे भारत भारततीर्थ है।यही असल में भारतीयता का वैश्वीकरण की मुख्यधारा है और फासिज्म का राजकाज इस इतिहास और भूगोल को खत्म करने पर तुला है।
पांच हजार साल से भारतीय साझा संस्कृति और विरासत का जो वैश्वीकरण होता रहा है,उसे सिरे से खारिज करके युद्धोन्मादी सत्तावर्ग बहुसंख्य जनता का नामोनिशान मिटाने पर तुला ब्राह्णधर्म की मनुस्मृति लागू करने पर आमादा है और व्यापक पैमाने पर युद्ध और विध्वंस उनका एजंडा है, उनका अखंड भारत के विभाजन का एजंडा भी रहा है ताकि सत्ता,जल जंगल जमीन के दावेदारों का सफाया किय जा सकें, और अब उनका एजंडा यही है कि मुक्तबाजार में हम अपने लिए सैकड़ों हिरोशिमा और नागासाकी इस फर्जी नवउदारवाद,फर्जी वैश्वीकरण के भारत विरोधी हिंदू विरोधी,धम्म विरोधी,मनुष्यता और प्रकृति विरोधी अमेरिकी उपनिवेश में सत्ता वर्ग के अपराजेय आधिपात्य के लिए अंध राष्ट्रवाद के तहत परमाणु विध्वंस चुन लें।यही राजनीति है।यही राजकाज है और यही राजनय भी है।यह युद्धोन्माद दरअसल राजसूय यज्ञ का आयोजन है और अश्वमेधी घोड़े सीमाओं के आर पार जनपदों को रौंदते चले जा रहे हैं।हम कारपोरेट आंखों से वह नजारा देख कर भी देख नहीं सकते।
मोहनजोदोड़ो और हड़प्पा की सिंधु घाटी के शंख के गहने अब बंगाल बिहार और पूर्वी भारत की स्त्रियां पहनती हैं।पश्चिम भारत और उत्तर भारत की स्त्रियां नहीं। इसीतरह सिंधु सभ्यता में अनिवार्य कालचक्र इस देश के आदिवासी भूगोल में हम घर में उपलब्ध है।हम इतिहास और भूगोल में सिंधु सभ्यता की इस निरंतरता को जैसे नजरअंदाज करते हैं वैसे ही धर्म और संस्कृति में एकीकरण और विलय के मार्फत मनुष्यता की विविध बहुल धाराओं की एकता और अखंड़ता को नामंजूर करके भारतीय राष्ट्रवाद को सत्ता वर्ग का राष्ट्रवाद बनाये हुए हैं और भारत राष्ट्र में बहुजनों का कोई हिस्सा मंजूर करने को तैयार नहीं है।इसलिए संविधान को खारिज करके मनुस्मृति को लागू करने का यह युद्ध और युद्धोन्माद है।
इसीतरह सिंदु सभ्यता से लेकर भारत में साधु,संत,पीर,फकीर ,बाउल, आदिवासी, किसान विरासत की जमीन पर शुरु नवजागरण को हम देशज सामंतवाद विरोधी,दैवीसत्ता धर्मसत्ताविरोधी,पुरोहित तंत्र विरोधी  मनुष्यता के हक हकूक के लिए सामाजिक क्रांति के बतौर देखने को अभ्यस्त नहीं है। मतुआ, लिंगायत, सिख, बौद्ध, जैन आंदोलनों की तरह यह नवजागरण सामंती मनुस्मृति व्यवस्था,वैदिकी कर्म कांड और पुरोहित तंत्र के ब्राह्मण धर्म के खिलाफ महाविद्रोह है,जिसने भारत में असभ्य बर्बर अमानवीय सतीदाह,बाल विवाह,बेमेल विवाह जैसी कुप्रथाओं का अंत ही नहीं किया,निरीश्वरवाद की चार्वाकीय लोकायत और नास्तिक दर्शन को सामाजिक क्रांति का दर्शन बना दिया।जिसकी जमीन फिर वेदांत और सर्वेश्वरवाद है।या सीधे ब्रह्मसमाज का निरीश्वरवाद।वहीं रवींद्रकाव्य का दर्शन है।
नवजागरण के तहत शूद्र दासी देवदासी देह दासी  स्त्री को अंदर महल की कैद से मुक्ति मिली तो विधवाओं के उत्पीड़न का सिलसिला बंद होकर खुली हवा में सांस लेने की उन्हें आजादी मिली।सिर्फ साड़ी में लिपटी भारतीय स्त्री के ब्लाउज से लेकर समूचे अंतर्वस्त्र का प्रचलन ब्रह्मसमाज आंदोलन का केंद्र बने रवींद्र नाथ की ठाकुर बाड़ी से शुरु हुआ तो नवजागरण के समसामयिक मतुआ आंदोलन का मुख्य विमर्श ब्राह्मण धर्म और वैदिकी कर्मकांड के खिलाफ तथागत गौतम बुद्ध का धम्म प्रवर्तन था तो इसीके साथ नवजागरण,मतुआ आंदोलन,लिंगायत आंदोलन से लेकर महात्मा ज्योतिबा फूले और माता सावित्री बाई फूले के शिक्षा आंदोलन का सबसे अहम एजंडा शिक्षा आंदोलन के तहत स्त्री मुक्ति का रहा है।
मतुआ आंदोलन का ज्यादा मह्तव यह है कि इसके संस्थापक हरिचांद ठाकुर न सिर्फ नील विद्रोह में किसानों का नेतृत्व कर रहे थे,बल्कि उनके मतुआ आंदोलन का सबसे अहम एजंडा भूमि सुधार का था।जो फजलुल हक की प्रजा समाज पार्टी का मुख्य एजंडा रहा है और फजलुल हक को हरिचांद ठाकुर के पुत्र गुरुचांद ठाकुर और उनके अनुयायियों जोगेंद्र नाथ मंडल  का पूरी समर्थन था।इसी भूमि सुधार एजंडे के तहत बंगाल में 35  साल तक वाम शासन था और 1901 में ढाका में मुस्लिम लीग बन जाने के बावजूद मुस्लिम लाग और हिंदू महासभा के ब्राह्मण धर्म का बंगाल में कोई जमीन या कोई समर्थन नहीं मिला।इन्हीं जोगेंद्र नाथ मंडल ने भारत विभाजन के बाद पाकिस्तान का संविधान लिखा तो विभाजन से पहले बैरिस्टर मुकुंद बिहारी मल्लिक के साथ बंगाल से अंबेडकर को संविधान सभा में पहुंचाया।बाद में 1977 का चुनाव जीत कर बंगाल में वाममोर्चा ने भूमि सुधार लागू करने की पहल की।बहुजन समाज की इस भारतव्यापी मोर्चे को तोड़ने के लिए ही बार बार विभाजन और युद्ध के उपक्रम हैं।
ऐसा पश्चिमी नवजागरण में नहीं हुआ। नवजागरण के नतीजतन फ्रांसीसी क्रांति,इंग्लैंड की क्रांति या अमेरिका की क्रांति में स्त्री अस्मिता या स्त्री मुक्ति का सवाल कहीं नहीं था और न ही भूमि सुधार कोई मुद्दा था।भारत के स्वतंत्रता संग्राम में किसानों और आदिवासियों के आंदोलन की विचारधारा और दर्शन के स्तर पर जर्मनी और इंग्लैंड से लेकर समूचे यूरोप में धर्म सत्ता और राजसत्ता के खिलाफ विद्रोह से हालांकि तुलना की जा सकती है,जो अभी तक हम कर नहीं पाये हैं।
इसलिए नवजागरण की सामाजिक क्रांति के धम्म के बदले राजसत्ता और धर्मसत्ता में एकाकार ब्राह्मण धर्म के हम शिकंजे में फंस रहे है।इससे बच निकलने की हर दिशा अब बंद है।रोशनदान भी कोई खुला नजर नहीं आ रहा है।
नवजागरण आंदोलन और भारतीय साहित्य में माइकेल मधुसूदन ने जो मेघनाथ वध लिखकर लोकप्रिय आस्था के विरुद्ध राम को खलनायक बनाकर मेघनाथ वध काव्य लिखा और आर्यावर्त के रंगभेदी वर्चस्व के मिथक को चकनाचूर कर दिया, नवजागरण के सिलसिले में उनकी कोई चर्चा नहीं होती और अंबेडकर से बहुत पहले वैदिकी,महाकाव्यीय मनुस्मृति समर्थक मिथकों को तोड़ने में उनकी क्रांतिकारी भूमिका के बारे में बाकी भारत तो अनजान है है,बंगाल में भी उनकी कोई खास चर्चा छंदबद्धता तोड़क मुक्तक में कविता लिखने की शुरुआत करने के अलावा होती नही है।

हम अपने अगले आलेख में उन्हीं माइकेल मधुसूदन दत्त और उनके मेघनाथ वध पर विस्तार से चर्चा करेंगे।अभी नई दिहाड़ी मिली नहीं है,तो इस मोहलत में हम भूले बिसरे पुरखों की यादें ताजा कर सकते हैं।तब तक कृपया इंतजार करें।

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