Friday, 23 September 2016

जन्मशताब्दी वर्ष के मौके पर बिजन भट्टाचार्य के रंगकर्म का तात्पर्य पलाश विश्वास

जन्मशताब्दी वर्ष के मौके पर बिजन भट्टाचार्य के रंगकर्म का तात्पर्य
पलाश विश्वास
भारतीय गण नाट्य आंदोलन ने इस देश में सांस्कृतिक क्रांति की जमीन तैयार की थी, हम कभी उस जमीन पर खड़े हो नहीं सके।लेकिन इप्टा का असर सिर्फ रंग कर्म तक सीमाबद्ध नहीं है। भारतीय सिनेमा के अलावा विभिन्न कला माध्यमों में उसका गहरा अर हुआ है।सोमनाथ होड़ और चित्तोप्रसाद जैसे यथार्थवादी चित्रकारों से लेकर,देवव्रत विश्वास जैसे रवींद्र संगीत गायक,सलिल चौधरी और भूपेन हजारिका जैसे संगीतकार, माणिक बंदोपाध्याय से लेकर महाश्वेता देवी तक जनप्रतिबद्धता और रचनाधर्मिता के मोर्चे पर लामबंदी का सिलसिला उसी इप्टा की विरासत है।
यह भारतीय रंगकर्म और भारतीय सिनेमा में संगीतबद्ध लोक के स्थाई भाव का सर्वव्यापी सौंदर्यबोध है, जो एकमुश्त भारतीय सिनेमा के साथ भारतीय रंगकर्म, भारतीय साहित्य और संस्कृति की जमीन और लोक की जड़ों का रचनासंसार भी है।

बिजन भट्टाचार्य की जन्मशताब्दी के मौके पर पटना के रंगकर्मियों के आयोजन का न्यौता मिला है। लेकिन हम वहां जा नहीं पा रहे हैं।नवारुण भट्टाचार्य और महाश्वेता देवी के साथ दशकों के संवाद के जरिये बिजन भट्टाचार्य के रंगकर्म के अनेक अंतरंग आयाम से उसी तरह आमना सामना हुआ है,जिस तरह ऋत्विक घटक की फिल्मों मेघे ढाका तारा,कोमल गांधार और सुवर्णरेखा के मार्फत रंग कर्म आंदोलन के विस्तार का साक्षात्कार हुआ है।

नवान्न के लेखक,अभिनेता बतौर रवींद्र की नृत्य नाटिकाओं से लेकर ऋत्विक घटक की रचना संसार तक इप्टा के रंगकर्म का जो विशाल विस्तार है,इस मौके पर उसकी चर्चा करना चाहुंगा।यह आलेख थोड़ा लंबा हो जाये,तो पाठक माफ करेंगे।हम नहीं जानते कि इस आयोजन में कितने लोगों तक यह आलेख पूरा का पूरा पहुंच सकेगा,लेकिन हिंदी में भारतीय पाठकों को अपनी परखौती की इस विरासत को शेयर करने के लिए इस हम अपने ब्लागों पर भी साझा कर रहे हैं।हमारा भी नैनीताल में युगमंच और गिरदा के जरिये,फिर शिवराम जैसे नुक्कड़ रंगकर्मी के जरिये सत्तर के दशक में रंगकर्म से थोडा़ नाता रहा है तो कोलकाता में नांदीकार के साथ भी थोड़ा रिश्ता रहा है तो बिजन भट्टाचार्य के परिजनों को भी दशकों से बहुत नजदीक से जानना हुआ है।हम चाहेंगे कि रंगकर्म और साहित्य संस्कृति से जड़ि पत्रिकाएं इस पूरे आलेख को पाठकों तक पहुंचाने में हमारी मदद करें ताकि बिजन भट्टाचार्य के बहाने हम भारतीय रंग कर्म और कलामाध्यमों का एक संपूर्ण छवि नई पीढ़ियों के समाने पेश कर सकें।
पहले इस तथ्य पर गौर करें कि भारतीय रंगकर्म की मौजूदा संरचना और उसी शैली, कथानक, सामाजिक यथार्थ में विभिन्न कलाओं के विन्यास की जो संगीबद्धता है,उसकी शुरुआत नौटंकी और पारसी थिएटर की देशज विधाओं की नींव पर नाट्यशास्त्र और संस्कृत नाटकों की शास्त्रीय विशुद्ध नाट्य परंपरा के विपरीत रवींद्र नाथ के भारततीर्थ की विविधता और बहुलता वाली राष्ट्रीयता में रची बसी उनकी नृत्य नाटिकाओं से शुरु है।भारतीय नाटकों में संस्कृत और देशज नाटकों में नृत्यगीत बेहद महत्वपूर्ण रहे हैं,लेकिन रवींद्र नाथ ने नाटक की समूची संरचना और कथानक का विन्यास नृत्य गीत के माध्यम से किया है।बिजन भट्टाचार्य के लिखे नाटक नवान्न ने नृत्यगीत की उस शास्त्रीय तत्सम धारा को अपभ्रंश की लोक जमीन में तोड़कर अभिव्यक्ति के सबसे सशक्त माध्यम बतौर नाटक की जमीन तैयार की।जिसमें इप्टा आंदोलन के मंच से चित्रकला, साहित्य की विभिन्न धाराओं का समायोजन हुआ है और आधुनिक रंगकर्म में उन सभी धाराओं को हम एकमुश्त मंच पर बहते हुए देख सकते हैं।
रवींद्र नृत्य नाटिकाओं में चंडालिका,विसर्जन,चित्रांगदा,रक्करबी आधुनिक रंगकर्म के लिए तत्सम संस्कृत के वर्चस्व के बावजूद उसीतरह सामाजिक यथार्थ को सोंबोधित है जैसे मुक्तिबोध की भाषा और शिल्प,निराला के छायावाद की नींव पर आधुनिक हिंदी साहित्य के जनप्रतिबद्ध यथार्थवाद का विस्तार हुआ है।रवींद्र के इन चारों नृत्यनाटिकाओं में नृत्य के ताल में छंदबद्ध कविताओं के मार्फत स्त्री अस्मिता, अस्पृश्यता के खिलाफ बुद्धमं सरणमं गच्छामि और पराधीन भारत की स्वतंत्रतता की मुक्ति आकांक्षा का जयघोष है।चंडालिका,चित्रांगदा और नंदिनी तीनों मुक्ति संग्राम में नेतृत्वकारी भूमिका में है।
इसी सिलसिले में तत्सम से अपभ्रंश की लोक जमीन पर इप्टा आंदोलन के तहत भारतीय थियेटर का सामाजिक यथार्थ पर केंद्रित भारतीय रंगकर्म और संस्कृति कर्म का नया सौंदर्यबोध बना है, जिसे मार्क्सवादी सौंदर्यबोध से जोड़कर हम अपने लोक जीवन की मेहनतकश दुनिया के कला अनुभवों को ही नजरअंदाज करते हैं।बिजन भट्टाचार्य से वह शुरुआत हुई जब भारतीय रंगकर्मियों ने लोक जीवन को रंगकर्म का मुख्य विन्यास,संरचना और माध्यम बनाने में निरंतर काम किया है। भारतीय कला माध्यमों की समग्र समझ  के साथ भारतीय रंगकर्म को देखने परखने के लिए बिजन भट्टाचार्य को जानना इसलिए बेहद जरुरी है।
नया रंगकर्म और रंगकर्म के नये प्रयोगों के लिए बिजन भट्टाचार्य का पाठ महाश्वेता देवी और नवारुण भट्टाचार्य के पाठ से ज्यादा जरुरी है।बिजन के बाद उनके ग्रुप थिएटर का निर्देशन करने वाले उनके बेटे नवारुण दा की मृत्यु उपत्यका में फिर वही नवान्न की भुखमरी की चीखें हैं तो अरबन लेखक नवारुण के उपन्यासों में फिर अंडरक्लास, अछूत, असभ्य, जातिहीन,अंत्यज सर्वहारा फैताड़ु या हर्बर्ट का धमाका गुलिल्ला युद्ध शब्द दर शब्द है।नवारुण दा और महाश्वेता दी के लेखन में वही फर्क है,जो ऋत्विक घटक और मृणाल सेन की फिल्मों में है।यह रंगकर्म के अनुभव का फर्क है जो नीलाभ या मंगलेश डबराल,वीरेन डंगवाल या गिरदा को दूसरे कवियों से अलग खड़ा कर देता है।
नवान्न के बिजन भट्टाचार्य और ऋत्विक घटक की युगलबंदी से सामाजिक यथार्थ की संगीदबद्ध सिनेमा का भी विकास हुआ जो दो बीघा जमीन  की कथा से अलहदा है।लोक को रंगकर्म का आधार बनाने का मुख्य काम बिजन भट्टाचार्य के नवान्न से ही शुरु हुआ जो गिरदा के नाट्य प्रयोगों में कुमांयूनी और गढ़वाली लोक जीवन है तो हबीब तनवीर के नया थिएटर में फिर वही छत्तीसगढ़ी नाचा गम्मत के साथ तीखा परसाईधर्मी व्यंग्य है तो मणिपुर में इस धारा में मणिपुरी नृत्य और संगीत के साथ साथ मार्शल आर्ट का समावेश है।शिवराम से लेकर सफदर हाशमी की नुक्कड़ यात्रा में भी वही लोक जमीन ही रंगकर्म की पहचान है।
बिजन भट्टाचार्य की पत्नी महाश्वेता देवी थीं।महाश्वेता देवी के चाचा थे ऋत्विक घटक और महाश्वेता देवी के साथ बिजन भट्टाचार्य का विवाह टूट गया तो महाश्वेता देवी ने दूसरा विवाह कर लिया। नवारुण अपनी मां के साथ नहीं थे और वह अपने रंगकर्मी पिता के साथ थे।नवारुणदा ने मेघे ठाका तारा से लेकर सुवर्ण रेखा तक भारत विभाजन की त्रासदी को बिजन और ऋत्विक के साथ जिया है लेकिन अपने रचनाकर्म में छायावादी भावुकता के बजाय चिकित्सकीय चीरफाड़ नवारुणदा की खासियत है और बिजन और ऋत्विक की संगीतबद्धता की बजाय ठोस वस्तुनिष्ठ गद्य उनका हथियार है, लेकिन शुरु से लेकर आखिर तक नवारुणदा उसी नवान्न की जमीन पर खड़े हैं और भद्र सभ्य उपभोक्ता नागरिकों के साथ नहीं,मेहनतकश दुनिया के हक हकूक के साथ वे खड़े हैं लगातार लगातार शब्द शब्द युद्ध रचते हुए तो नवान्न में साझेदार महाश्वेता दी की रचनाओं में शहरी सीमेंट के जंगल के बजाय तमाम जंगल के दावेदार हैं,आदिवासी किसान विद्रोह का सारा इतिहास है और वह हजार चौरसवीं की मां से लेकर महाअरण्य की मां या सिंगुर नंदीग्राम जंगलमहल लोधा शबर की मां भी है।महाश्वेता दी रचनाकर्मी जितनी बड़ी हैं उससे बड़ी सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता है और वे विचारधारा के पाखंड को तोड़कर भी आखिरतक जंगल की गंध से अपनी वफा तोड़ती नहीं हैं।
सविताजी और मुझे उन्हीं महाश्वेता देवी के एकांत में उनके कंठ से दशकों बाद नवान्न के वे ही गीत सुनने को मिले हैं। पारिवारिक संबंध जैसे भी रहे हों,मेहनतकशों के हक हकूक की लड़ाई में नवान्न का रंगकर्म उनका हमेशा साझा रहा है।यही इप्टा को लेकर कोमल गांधार के विवाद और रंगकर्म पर नेतृत्व के हस्तक्षेप के खिलाफ ऋत्विक, देवव्रत विश्वास,सोमनाथ होड़ वगैरह की बगवात की कथा व्यथा भी है।यह कथा यात्रा भी सर्वभारतीय है,जिसमें भारतीय सिनेमा और उसके बलराज साहनी,एके हंगल जैसे तमाम चमकदार चेहरे भी शामिल हैं।
नवान्न बिजन भट्टाचार्य ने लिखा और 1944 में भारतीय गण नाट्य संघ(इप्टा) ने किंवदंती रंगकर्मी शंभू मित्र के निर्देशन में इस नाटक कामंचन भुखमरी के भूगोलको संबोधित करते हुए लिखा है।बाग्ला ग्रुप थिएटर आंदोलन की कथा जैसे शंभू मित्र के बिना पूरी नहीं होती तो बिजन की चर्च के बिना वह कहानी  फिर अधूरी है।इन्हीं शंभू मित्र ने फिर राजकपूर की सर्वश्रेष्ठ फिल्म जागते रहो का निर्देशन किया।वहा भी मैं क्या झूठ बोल्या की गूंज राजकपूर और नर्गिस के करिश्मा से बढ़कर है और यह फिल्म इसीलिए महान है।भुखमरी के इसी भूगोल से सोमनाथ होड़ और चित्तोप्रसाद की चित्रकला जुड़ी है तो देवव्रत विश्वास के रवींद्र संगीत में भी भूख का वही भूगोल है जो माणिक बंद्योपाध्या का समूचा कथासंसार है।जो दरअसल रवींद्र की चंडालिका, रक्तकरबी और चित्रांगदा का भाव विस्तार है तो नया थिएटर से लेकर मणिपुरी थिएटर का बीज है और इसी परंपरा में मराठी रंगकर्म में तमाशा जैसे लोक विधा का समायोजन है तो दक्षिण भारतीय रंगकर्म में शास्त्रीय नृत्य भारत नाट्यम और कथाकलि विशुध लोक के साथ एकाकार हैं।
1944 में शंभू मित्र के निर्देशन में गणनाट्य संघ की प्रस्तुति के बाद 1948 में आजाद भारत में शंभू मित्र के ग्रुप थिएटर बहुरुपीके मच से कुमार राय के निर्देशन में फिर नवान्न का मंचन हुआ।ब्रिटिश भारत के बंगाल में द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान एक भी मृत्यु बमवर्षा से न होकर लाखों लोग खामोशी से भुकमरी के शिकार हो गये।1943  की बंगाल की उस भुखमरी के शिकार लोगों की मदद के लिए इप्टा ने वायस आप बेंगल उत्सव के जरिये देशभर में एक लाख रुपये से बड़ी रकम इकट्ठा की थी। नवान्न सिर्फ नाटक का मंचन नहीं था,वह सामाजिक यथार्थ का कला के लिए कला जैसा कला कौशल भी नहीं था,भुखमरी के शिकार लोगों के लिए देशव्यापी राहत सहायता अभियान भी था वह ,जो इप्टा का सामाजिक क्रांति उपक्रम था,जिसमें सारे कला माध्यमों का संगठनात्मक ताना बाना था,जो पराधीन भारत में बना लेकिन भारत के आजाद होते ही टूटकर बिखर गया।इप्टा से नवान्न का बहुरुपी के मंच तक स्थानांतरण इसी विघटन का प्रतीक है।

बिजन भट्टा चार्य जितने बड़े लेखक थे,उससे कहीं ज्यादा सशक्त वे थिएटर और सिनेमा दोनों विधायों के अभिनेता थे।बांग्ला थिएटर आंदोलन में गिरीश चंद्र भादुडी़ के बाद त्रासदी जिनके नाम का पर्याय है,वे बिजन भट्टाचार्य है,जिन्होंने मेघे ढाका तारा में नीता के पिता की भूमिका अदा किया है तो विभाजन की त्रासदी को नाटक दर नाटक, फिल्म दर फिल्म भुखमरी की नर्क यंत्रणा के साथ जिया है,नवारुण दा ने उस पिता का हाथ कभी नहीं छोड़ा और यही उनकी आजीवन त्रासदी का सुखांत कहा जा सकता है।
विजन भट्टाचार्य और ऋत्विक घटक हमारी तरह ही पूर्वी बंगाल के विभाजनपीड़ित विस्थापित थे, जिन्हें उनकी सक्रिय रचनाधर्मिता और भारतीय संस्कृति,रंगकर्म और सिनेमा में अभूतपूर्व योगदान के बावजूद  बंगाली भद्रलोक समाज ने कभी मंजूर नहीं किया।
ऋत्विक को बाकायदा बंगाल के इतिहास भूगोल से पूर्वी बंगाल से आये बंगाली विभाजनपीड़ितों की तरह  खदेड़ दिया गया और बिजन भट्टाचार्य लगभग गुमनाम मौत मरे और बंगाल के सांस्कृतिक जगत में उनकी जन्मशताब्दी को लेकर वह हलचल नहीं है, जो बंगाल के किसी भी क्षेत्र में कुछ भी करने वाले किसी की भी जन्मशताब्दी को लेकर दिखती है।बल्कि यूं कहे कि बंगाली भद्रसमाज को भूख के भूगोल के इस महान शरणार्थी कलाकार की कोई याद नहीं आती वैसे ही जैसे उन्हें ऋत्विक घटक कभी रास नहीं आये।

हमारे पुरखे जैशोर जिले में रहते थे जो मधुमति नदी के किनारे नड़ाइल थाना इलाके के वाशिंदा थे और वे हरिचंदा ठाकुर के मतुआ आंदोलन से लेकर तेभागा तक के सिपाही थे।वह नड़ाइल अब अलग जिला है।मधुमति नदी भी सूख सी गयी है ,बताते हैं।उसी मधुमति नदी के उस पार फरीदपुर जिले के खानखानापुर में 1906 को बिजन भट्टाचार्य का जन्म हुआ था।उनके पिता क्षीरोद बिहारी स्कूल शिक्षक थे।पेशे के लिहाज से बदली होते रहने के कारण बंगाल भर में पिता के साथ सफर करते रहने की वजह से बंगाल के विबिन्ऩ इलाकों के लोकत में उनकी इतनी गहरी पैठ बनी।उनके लिखे में इसलिए भद्रलोक तत्सम भाषा के बजाय बोलियों के अपभ्रंश ज्यादा हैं,जिन्हें उन्होंने नवान्न मार्फत भारतीय रंगकर्म का सौंदर्यशास्त्र बना दिया।

नवान्न के बारे में बिजन भट्टाचार्य ने खुद कहा है,आवेग न हो तो कविता का जन्म नहीं होता-संवेदना न हो,जीवन यंत्रणा न हो तो शायद कोई रचना संभव नहीं है।

इसतरह गणनाट्य आंदोलन भी दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान सोवियत संघ पर हिटलर के हमले की वजह से शुरु फासीवादविरोधी आंदोलन के तहत फासीवाद विरोधी लेखक संसकृतिकर्म संगठन से लेकर इप्टा तक का सफर रहा है।1943 की भुखमरी के मुश्किल हालात के मुकाबले समस्त कला माध्यमों के समन्वय से ही इस आंदोलनका इतना व्यापक असर भारतीय विधाओं और कला माध्यमों पर हुआ,जिसके लिए नवान्न का मंचन प्रस्थानबिंदू रहा है।





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