रैली खत्म, नेता नदारद, हमले तेज़ : ऐतिहासिक यात्रा के बाद टाइम बम पर बैठा गुजरात का दलित समुदाय
ऊना रैली की तस्वीरों पर चस्पां मेरी पिछली टिप्पणी पर सत्यम जी ने पूछा है कि इस घटना को उसकी तात्कालिकता में कम कर के क्यों आंका जा रहा है। मेरा जवाब सुनें: ऊना में आज समाप्त हुई दलित अस्मिता रैली को उसकी तात्कालिकता और दीर्घकालिकता में वे लोग कम कर के आंक रहे हैं जो तस्वीरों को देखकर 'इंकलाबित' हैं। मुझे कोई गफ़लत नहीं है। मेरा मानना है कि इस रैली ने समूचे गुजरात के दलितों, खासकर ऊना और इससे सटे इलाके के दलितों को एक ऐसे टाइम बम पर बैठा दिया है जो कभी भी फट सकता है।
फि़लहाल मैं ऊना के सर्किट हाउस के कमरा नंबर तीन में हूं। आधे घंटे पहले दीव से पूरे शहर का मुआयना करते हुए लौटा हूं। मेरे ऊपर एक नंबर कमरे में डीएम साहब डेरा डाले हुए हैं। पूरे शहर में पुलिस की गश्त है। थाने में भारी चहल-पहल है। राजकीय अस्पताल में 11 लोग भर्ती हैं। बाकी कई दूसरे अस्पतालों में दलित भर्ती हैं। परसों जो हिंसा का पहला दौर शुरू हुआ था, वह आज रैली खत्म होने के बाद सिलसिलेवार शाम तक चला है। सामतेर गांव में काठी दरबार क्षत्रिय समुदाय के लोग सुबह से रैली से लौट रहे लोगों पर रह-रह कर हमला कर रहे हैं। शाम को भारी गोलीबारी हुई है। कुछ वाहन जिनसे दलित अपने गांवों को लौट रहे थे, जला दिए गए हैं। 24 गांवों के काठी दरबारों ने आज अपने यहां के दलितों का सामूहिक बहिष्कार कर दिया है। हर दलित के चेहरे पर जो भय दिख रहा है, उसकी कल्पना दिल्ली-मुंबई-अमदाबाद में बैठकर रैली का गुणगान करने वाले लोग नहीं कर सकते।
शाम को जब मैं दीव के रास्ते में था, मैंने देखा कि ऊना पुलिस स्टेशन में आनंद पटवर्धन समेत कई साथी टहल रहे थे। फिरोज़ मिठिबोरवाला, जिग्नेश, शमशाद आदि सब अपने-अपने ठिकानों को निकल चुके थे। रैली के बाद ऊना का दलित अचानक नेतृत्वविहीन हो गया था। मैंने सीमांतिनी धुरु को फोन किया तब पता चला कि 11 जुलाई की घटना में पीटे गए युवकों के जो परिजन रैली में हिस्सा लेने आए थे, उन्हें शाम तक थाने में बैठाकर रखा गया था क्योंकि पुलिस उन्हें सुरक्षा देने से इनकार कर रही थी। दिन में एक बजे इसी मुद्दे को लेकर थाने का घेराव हुआ था और एकाध बार उन्हें पुलिस वैन में बैठाने का नाटक भी हुआ, लेकिन देर शाम तक वे अपने गांव नहीं जा पाए। साढ़े सात बजे सीमांतिनी धुरु ने बताया कि पांच मिनट पहले यह परिवार समढियाला के लिए रवाना हुआ है और आनंद पटवर्धन समेत सारे साथी अब थाने से बाहर आ चुके हैं। इसके एक घंटे बाद ख़बर आई कि परिवार पर रास्ते में हमला हो गया है। उसके घंटे भर बाद ख़बरों का सिलसिला जो चालू हुआ, तो अब तक नहीं थमा है। तलवार, डंडा, बोतल, बंदूक- हर चीज़ से दलितो पर आज रात तक हमला किया गया है। अगले दो दिनों के दौरान इस इलाके में क्षत्रियों और गौरक्षकों की जबरदस्त रैली और हमलों की योजना है। इस पूरे मामले में प्रशासन मूक दर्शक बना हुआ है। जब जिलाधिकारी से यह पूछा गया कि उन्होंने शस्त्रों के लाइसेंस ज़ब्त क्यों नहीं किए, तो उनका व्यंग्य भरे लहजे में टका सा जवाब था, ''यह धरती यूपी-बिहार नहीं है, गांधी की है, जहां लोग अहिंसा में विश्वास रखते हैं।''
आज जो रैली हुई है, वह वास्तव में ऐतिहासिक है। बाहर से कुछ लोग पैराशूट से उतरे और भाषण देकर निकल लिए। उससे जो संदेश गया है, वो यह है कि रैली सवर्णों के खिलाफ की गई है। इसने बचे-खुचे समाज में जो फांक पैदा की है, वह दलितों को बहुत भारी पड़ने वाली है। ज़़ाहिर है, इन दलितों को सहारा देने के लिए न तो रैली के नेता यहां रुके हैं, न ही जेएनयू से आए वे उत्साही लड़के जो 25000 की भीड़ को संबोधित करते हुए कहते हैं कि 15 अगस्त को दिल्ली के 'राजपथ' पर मोदीजी भाषण दे रहे हैं। उन्हें लाल किले और राजपथ का फ़र्क तक नहीं पता। कविता कृष्णन बेशक आई थीं, लेकिन उनकी भूमिका समझ नहीं आई। वे जा चुकी हैं। आप समझ सकते हैं कि ऐसे माहौल में एक अकेला फिल्मकार आनंद पटवर्धन है जो अपनी कार्यसीमा का अतिक्रमण कर के पीडि़त परिवार को पुलिस संरक्षण दिलवाने के लिए थाने पर शाम तक डेरा डाले हुए था। विडंबना यह है कि रैली का स्थानीय आयोजक कल रात से 'अंडरग्राउंड' है। ये कैसा आंदोलन है, ऊना के दलितों को अब तक समझ में नहीं आया है।
हां, इतना ज़रूर समझ में आ रहा है कि दस दिन तक चली एक 'ऐतिहासिक' यात्रा ने राज्य भर में दलितों के मुंह से बचा-खुचा निवाला छीनने का इंतज़ाम बेशक कर डाला है। उच्च जातियां, ओबीसी और प्रशासन एक तरफ़ है और दलित अकेला, बहुत अकेला। रैली के नेतृत्व को भले ही कल अपना सियासी सूरज चमकता देखने को मिल जाए, लेकिन गुजरात के दलितों के लिए आज की रात और आज के बाद की हर रात काली ही रहने वाली है। ये है 15 अगस्त को ऊना में समाप्त हुई रैली का ज़मीनी सच, जिसे शायद कोई भी दलित हितैशी तत्काल कहने से परहेज़ करेगा। इस बात को कायदे से एक पत्रकार एक विस्तृत स्टोरी में लिख सकता था, लेकिन इसका जो तात्कालिक महत्व है, उसके लिए फेसबुक से ज्यादा मुफ़ीद और आसान जगह मुझे नहीं मिली।
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