Thursday 18 August 2016

लेकिन तनिक विचार जरुर करें कि यह वैमनस्य से लबालब भेदभाव कोई मुद्दा है या नहीं। उत्तराखंड में हम लोग अब भी साझा चूल्हा के हिस्सेदार हैं,मुझे मरते हुए इसीलिए भेदभाव के बंगाल के बजाय उत्तराखंड में जनमने का गर्व रहेगा। पलाश विश्वास

लेकिन तनिक विचार जरुर करें कि यह वैमनस्य से लबालब भेदभाव कोई मुद्दा है या नहीं।


उत्तराखंड में हम लोग अब भी साझा चूल्हा के हिस्सेदार हैं,मुझे मरते हुए इसीलिए भेदभाव के बंगाल के बजाय उत्तराखंड में जनमने का गर्व रहेगा।
पलाश विश्वास
सिखों की राजनीति लिखकर मित्रों को भेजते भेजते कल रात भोर में तब्दील हो गयी। रिजर्व बैंक की ओर से 2005 के करंसी नोटों को खारिज करने की कार्रवाई का खुलासा करने के मकसद से तैयारी कर रहा हूं जबसे यह घोषणा हुई तबसे। आज लिखने का इरादा था।

लेकिन मार्च से पहले अभी काफी वक्त है । इस पर हम लोग बाद में भी चर्चा कर सकते हैं।इसलिए फिलहाल यह संवाद विषय स्थगित है।

बसंतीपुर के नेताजी जयंती समारोह की चर्चा करते हुए हमने उत्तराखंड की पहली केशरिया सरकार की ओर से वहां 1952 से पुनर्वासित सभी बंगाली शरणार्थियों को विदेशी घुसपैठिया करार दिये जाने की चर्चा की थी।

इन्हीं बंगाली शरणार्थियों की नागरिकता के सवाल पर साम्यवादी साथियों की चुप्पी की वजह से पहलीबार हमें अंबेडकरी आंदोलन में खुलकर शामिल होना पड़ा है।

हम बार बार विभाजन कीत्रासदी पर हिंदी,बांग्ला और अंग्रेजी में लिखते रहे हैं,क्योंकि भारत में बसे विभाजनपीड़ितों की कथा व्यथा यह है।

इस विभाजन में केंद्रीय नेताओं के मुकाबले बंगाल के सत्तावर्ग की निर्णायक भूमिका का खुलासा भी हमने बार बार किया है।

इसी सिलसिले में शरणार्थियों के प्रति सत्तावर्ग के शत्रुतापूर्ण रवैये के सिलसिले में हमने बार बार मरीचझांपी जनसंहार की कथा सुनायी है।

जिसपर आज भी भद्रलोक बंगाल सिरे से खामोश हैं।

यही नहीं, विभाजनपीड़ित बंगाली दलित शरणार्थियों के देश निकाले अभियान की शुरुआत जिस नागरिकता संशोधन कानून से हुई ,उसे पास कराने में बंगाल के सारे राजनीतिक दलों की सहमति थी।

हमने उत्तराखंड, ओड़ीशा, महाराष्ट्र से लेकर देशभर में चितरा दिये गये बंगाली दलित शरणार्थियों के बंगाल से बाहर स्थानीय लोगों के बिना शर्त समर्थन के बारे में भी बार बार लिखा है।

असम में भी जहां विदेशी घुसपैठियों के खिलाप आंदोलन होते रहते हैं,वहां गुवाहाटी में दलित बंगाली शरणार्थियों को नागरिकता देने की मांग लेकर सभी समुदायों की लाखों की रैली होती है।

हमने इस सिलसिले में उत्तराखंड में होने वाले जनांदोलनों में तराई और पहाड़ के सभी समुदायों की हिस्सेदारी की रपटें 1973 से लगातार लिखी है।

1973 से देश भर में मेरा लिखा प्रकाशित होता रहा तो अंग्रेजी में जब लिखना शुरु किया तो बांग्लादेश, पाकिस्तान,क्यूबा,म्यांमार और चीन देशों में वे लेख तब तक छपते रहे जबतक हम छपने के ही मकसद से प्रिंट फार्मेट में लिखते रहे।

लेकिन बंगाल में तेईस साल से रहने के बावजूद बांग्लादेश में खूब छपने के बावजूद मेरा बांग्ला लिखा भी बंगाल  में नहीं छपा। अंग्रेजी और हिंदी में लिखा भी नहीं।

हम देशभर के लोगों से बिना किसी भेदभाव के कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी, पूर्वोत्तर लेकर कच्छ तक, मध्यभारत  और हिमालय के अस्पृश्य डूब बेदखल जमीन के लोगों को बिना भेदभाव संबोधित करते रहे हैं और उनसे निरंतर संवाद करते रहे हैं।

बाकी देश में मुझे लिखने से किसी ने आज तक रोका नहीं है।

कल जो सिखों की राजनीति पर लिखा,जैसा कि सिख संहार को मैं हमेशा हरित क्रांति के अर्थशास्त्र और ग्लोबीकरण एकाधिकारवादी कारोपोरेट राज के तहत भोपाल गैस त्रासदी और बाबरी विध्वंस के साथ जोड़कर हमेशा लिखता रहा हूं और पंजाबियत के बंटवारे पर भारत विभाजन के बारे में लिखा है,अकाली राजनीति के भगवेकरण की तीखी आलोचना की है। लेकिन किसी सिख या अकाली ने मुझसे कभी नहीं कहा कि मत लिखो।


इसी लेख पर बंगाल से किन्हीं सव्यसाची चक्रवर्ती ने मंतव्य कर दिया कि किसी बांग्लादेशी शरणार्थी को भारत की राजनीति में हस्तक्षेप करने की जरुरत नहीं है।

इससे पहले नामदेव धसाल पर मेरे आलेख का लिंक देने पर भद्रलोक फेसबुक मंडली  से चेतावनी जारी होने पर मैं खुद उस ग्रुप से बाहर  हो गया।नामदेव धसाल पर लिखने की यह प्रतिक्रिया है।

हिंदी और मराठी के अलावा बाकी भारतीय भाषाओं में दलित,आदिवासी और पिछड़ा साहित्य को स्वीकृति मिली हुई है। लेकिन बांग्ला वर्ण वर्चस्वी समाज ने न दलित,न आदिवासी और न पिछड़ा कोई साहित्य किसी को मंजूर है।

परिवर्तन राज में हुआ यह है कि वाम शासन के जमाने से कोलकाता पुस्तक मेले के लघु पत्रिका मंडप में बांग्ला दलित साहित्य को जो मेज मिलती थी,इसबार उसकी भी इजाजत नहीं दी गयी।

बांग्ला दलित साहित्य के संस्थापक व अध्यक्ष मनोहर मौलि विश्वास ने अफसोस जताते हुए कि बांग्ला में कहीं भी दलित साहित्यकार ओमप्रकाश बाल्मीकि या कवि नामदेव धसाल के निधन पर कुछ भी नहीं छपा।जब पेसबुक लिंक पर हो लोगों को ऐतराज हो तो इसकी उम्मीद भी नहीं की जा सकती।

मनोहर दा ने कहा कि पुस्तकमेले के व्यवस्थापकों को दलित शब्द से ऐतराज है।

उन्होंने बताया कि हारकर उन्होंने अपनी अंग्रेजी पत्रिका दलित मिरर के लिए अलग टेबिल की इजाजत मांगी और उससे भी सिरे से दलित शब्द के लिए मना कर दिया गया।

प्रगतिशील क्रांतिकारी उदार आंदोलनकारी बंगाल की छवि लेकिन अब भी देश में सबसे चालू सिक्का है।उसीका खोट उजागर करने के लिए निहायत निजी बातों का भी खुलासा मुझे भुक्तभोगी बाहैसियत करना पड़ा।

प्रासंगिक मुद्दे से भटकाव के लिए हमारे पाठक हमें माफ करें।
लेकिन तनिक विचार करे कि यह वैमनस्य से लबालब भेदभाव कोई मुद्दा है या नहीं।

मेरे पिता 1947 के बाद इस पार चले आये, पूर्वी बंगाल से लेकर उत्तर प्रदेश की तराई में 1958 के ढिमरी ब्लाक तक भूमि आंदोलनों का नेतृत्व किया। 1969 में ही दिनेशपुर के लोगों को भूमिधारी हक मिल गया था। हम तराई में जनमे और पहाड़ में पले बढ़े। हमें किस आधार पर बांग्ला देशी शरणार्थी कहा जा रहा है।इसी सिलसिले में आपको बता दूं कि मेरे बेटे को 2012 में एक बहुत बड़े एनजीओ से सांप्रदायिकता पर फैलोशिप मंजूर हुई थी। दिल्ली में उस एनजीओ की महिला मुख्याधिकारी जो संजोगसे चक्रवर्ती ही थीं, ने उसे देखते ही बांग्लादेशी करार दिया और कहा कि सारे पूर्वी बंगाल मूल के लोग विदेशी हैं।तुम विदेशी हो और तुम्हें हम काम नहीं करने देंगे।आननफानन में उसकी फैलोशिप रद्द कर दी गयी।आदरणीय राम पुनियानी जो को यह कथा मालूम है।बस,हमने इसे अपवाद मानते हुए आपसे साझा नहीं किया था।पुनियानी जी ने तब अनहद में उसके काम करने का प्रस्ताव किया था। लेकिन वह एकबार दूध से जलने के बाद छाछ भी पीने को तैयार नहीं हुआ।

मैं उत्तराखंड,झारखंड और छत्तीसगढ़ के आंदोलनो से छात्रजीवन से जुड़ा था। किसीने इसपर कोई ऐतराज नहीं किया। गैरआदिवासी होते हुए मैं हमेशा आदिवासी आयोजनों में शामिल होता रहा हूं,देश के किसी आदिवासी ने मुझसे नहीं कहा कि तुम गैर आदिवासी और दिकू हो। पूर्वोत्तर और दक्षिणभारत में भी ऐसा कोई अनुभव नहीं है।

हमारे पुरातन मित्रों की तरह न मैं कामयाब पत्रकार हूं न कोई कालजयी साहित्यकार हूं।मुझे इसका अफसोस नहीं है बल्कि संतोष है कि अब भी पिता की ही विरासत जी रहा हूं। जनपक्षधर संस्कृतिकर्म के लिए तो अगर पुनर्जन्म के सिद्धांत को सही मान लें,लगातार सक्रियता के लिए सौ सौ जनम लेने पड़ते हैं। हम अपनी दी हुई स्थितियों में जो कर सकते थे,हमेशा करने की कोशिश करते रहे हैं।इस सिलसिले में जब प्रभाष जोशी जी जनसत्ता के प्रधानसंपादक थे,तभी हंस में मेरा आलेख छप गया था कि कैसे बंगाल के  सवर्ण वर्चस्व के चलते हमें किनारे कर दिया गया।हमें जो लोग विदेशी बांगलादेशी बताकर लिखने से रोकने की कोशिश कर रहे हैं,उन्हीं के भाईबंधु मीडिया में सर्वेसर्वा हैं। बंगाल में तो जीवन के हर क्षेत्र में। हमने उनको कोई रियायत नहीं दी है।इतिहास,साहित्य और संस्कृति के मुद्दों पर उनके एकाधिकार को हमेशा चुनौती दी है। गौरतलब है कि उन मुद्दों पर इन लोगों ने  कभी प्रतिवाद करनाभी जरुरी नहीं समझा। सिखों के मुद्दे पर सिखों की ओर से हस्तक्षेप का आरोप नहीं लग रहा है,आरोप लगाया जा रहा है तो बंगाल के वर्णवर्चस्वी सत्ता वर्ग से।

इससे आगे हमें खुलासा नहीं करना है। लेकिन उत्तराखंड और देश के दूसरे हिस्सों में गैर बंगाली आम जनता का रवैया हमारे प्रति कितना पारिवारिक है,सिर्फ उसके खुलासे से निजी संकट के इस रोजनमचा को भी साझा कर रहा हूं। उत्तराखंड में हम लोग अब भी साझा चूल्हा के हिस्सेदार हैं,मुझे मरते हुए इसीलिए भेदभाव के बंगाल के बजाय उत्तराखंड में जनमने का गर्व रहेगा।
आज तड़के दिनेशपुर से पंकज का फोन आया सविता को।तब मैं सो रहा था।सविता ने जगाकर कहा कि उसकी मंझली भाभी को दिमाग की नस फट जाने की वजह से हल्द्वानी कृष्मा नर्सिंग होम में भरती किया गया है परसो रात और वह कोमा में है।सविता ने मेरे जागने से पहले ही बसंतीपुर में पद्दोलोचन को फोन कर दिया और वह ढाई घंटे के बीतर हल्द्वानी पहुंच गया।दिनेशपुर में हसविता के मायकेवाले सारे लोग जमा हो गये।उसे बड़े भाई अस्वस्थ्य बिजनौर के धर्मनगरी गांव में हैं।भकी सारे लोग दिनेशपुर और दुर्गापुर में पम्मी और उमा के यहां डेरा डाले हुए हैं और बारी बारी से अस्पताल आ जा रहे हैं।

हल्द्वानी में न्यूरो सर्जरी का कोई इंतजाम नहीं है।नर्सिंग होम में इलाज संभव नहीं है और वहां रोजाना बीस हजार का बिल है।इसी बीच दिल्ली से दुसाध जी का फोन आया और उन्होंने लखनऊ में स्वास्थ्य निदेशक से बात की।फिर उनसे हमारी बात हुई। इसी बीच रुद्रपुर से तिलक राज बेहड़ जी भी कृष्मा नर्सिंग होम पहुंच गये। सविता के भतीजे रथींद्र,दामाद सुभाष और कृष्ण के साथ पद्दो ने तमाम लोगों से परामर्श करके मरीज को देहरादून ज्योली ग्रांट मेडिकल कालेज में स्थानांतरित करने का फैसला लिया।क्योंकि वे लोग दिल्ली में सर्जरी कराने का खर्च उढा नहीं सकते।देहरादून में उन्हें स्थानीय मदद की भी उम्मीद है।वे लोग कल भोर तड़के तक देहरादून पहुंच जाएंगे घोर कुहासे के मध्य,ऐसी उम्मीद है।

अभी अभी पद्दो ने हल्द्वानी से फोन करके बताया कि मरीज को नर्सिंग होम से डिस्चार्ज करवा देहरादून रवाना हो चुके हैं। आगे कठिन समय है। देहरादून में जिन मित्रों की ज्योली ग्रांट मेडिकल कालेज अस्पताल तक पहुंच हैं वे अगर न्यूरोलोजी विभाग में श्रीमती पद्दो विश्वास और उनके परिजनों की कोई मदद इलाज के सिलसिले में कर सकें,तो मौके पर हमारे न पहुंच पाने की कमी पूरी हो सकती है।मेरे भाई का नाम पद्दो है तो सविता की बाभी का नाम बी पद्दो है।बेहद खुशमिजाज पचास साल की इस महिला के लिए हम सारे लोग बेहद चिंतित है।

आजकल दिल की बीमारियों का इलाज और आपरेशन कहीं भी कभी भी संभव है,लेकिन मस्तिष्काघात से हमारे मित्र फुटेला जी तक अभी उबर नहीं सके हैं और हमारे अपने ही लोग दिल्ली तक पहुंचने लायक हालत में नहीं है।फिरभी उत्तराखंड में हमारे परिचितों का दायरा इतना बड़ा है कि हमारे लोग दिल्ली जाने का जोखिम उटाये बगैर उत्तराकंडी विकल्प ही चुनते हैं।बाकी देश में बाकी आम लोगों के साथ क्या बीतती होगी,अपनों पर जब बन आती है ,तभी इसका अहसास हो पाता है।

No comments:

Post a Comment